Santmat Satsang

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संतमत अर्थात् संतों का मत। यह परम सनातन, परम पुरातन और वेद-सम्मत मत है।

संतमत अर्थात् संतों का मत। यह कोई नया धर्म, मजहब, मत या सम्प्रदाय नहीं है, बल्कि परम सनातन, परम पुरातन और वेद-सम्मत मत है। संतमत किसी एक संत के नाम पर आधरित नहीं है। इसमें सभी संतों की समान रूप से मान्यता है।

संतमत एक विशुद्ध आध्यात्मिक मत है, जिसके द्वारा ज्ञान-योग-युक्त ईश्वर-भक्ति का प्रचार होता है।

-:उपादेयता:-

संसार के जितने प्राणी हैं, सभी सुख चाहते हैं, दुःख की कामना कोई नहीं करता। प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है। यह भी सुख की कामना करता है। सिर्फ कामना ही नहीं करता, बल्कि अपने अर्जित ज्ञान के आधार पर सुख-शांति की प्राप्ति के लिए प्रयत्न भी करता है। परन्तु परिणाम सबके सामने है। सुख पाने के प्रयत्न में मानव दुःखी होता है और शांति की चाह में अशांत होता है। संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिले, जिसके जीवन में चिन्ताएँ न हों, समस्याएँ न हो, कोई दुःख न हो। प्रत्येक व्यक्ति न चाहते हुए भी दैहिक, दैविक और भौतिक इन त्रायतापों से संतप्त होता रहता है। लोग धनवान, बलवान, गुणवान, रूपवान, ऐश्वर्यवान प्रभृति होते हुए भी दुःखी दीखते हैं।

आखिर इसका कारण क्या है? जबतक रोग का कारण ज्ञात न हो, उसका निवारण संभव नहीं है। संत कबीर साहब के शब्दों में हम उत्तर कह सकेंगे-

वस्तु कहीं ढूँढै़ कहीं, केहि विधि आवै हाथ ।

जब यह जीवात्मा अन्तर्साधना के द्वारा अन्तर्गमन कर निःशब्द में अपने प्रभु से मिलकर एकमेक हो जाएगा, तब उसको परम सुख और शाश्वत शांति प्राप्त हो जाएगी। इसी अक्षय सुख-शांति की प्राप्ति कराने के लिए ‘संतमत’ मार्गदर्शन करता है और यही इसकी उपादेयता है।

-:संतमत-सिद्धान्त:-

जो परम तत्त्व आदि-अन्त-रहित, असीम, अजन्मा, अगोचर, सर्वव्यापक और सर्वव्यापकता के भी परे है, उसे हीसर्वेश्वर सर्वाधर मानना चाहिए तथा अपरा (जड़) और परा (चेतन); दोनों प्रकृतियों के पार में, अगुण और सगुणपर, अनादि-अनंत-स्वरूपी, अपरम्पार शक्ति- युक्त, देशकालातीत, शब्दातीत, नाम- रूपातीत, अद्वितीय, मन,बुद्धि और इन्द्रियों के परे जिस परम सत्ता पर यह सारा प्रकृति-मंडल एक महान यंत्रा की नाईं परिचालित होतारहता है, जो न व्यक्ति है और न व्यक्त है, जो मायिक विस्तृतत्व-विहीन है, जो अपने से बाहर कुछ भी अवकाशनहीं रखता है, जो परम सनातन, परम पुरातन एवं सर्वप्रथम से विद्यमान है, संतमत में उसे ही परम अध्यात्मपदवा परम अध्यात्म स्वरूपी परम प्रभु सर्वेश्वर (कुल्ल मालिक) मानते हैं।

जीवात्मा सर्वेश्वर का अभिन्न अंश है।

प्रकृति आदि-अंत-सहित है और सृजित है।

मायाब (जीव आवागमन के चक्र में पड़ा रहता है। इस प्रकार रहना जीव के सब दुःखों का कारण है। इससे छुटकारापाने के लिए सर्वेश्वर की भक्ति ही एकमात्रा उपाय है।

मानस जप, मानस ध्यान, दृष्टि साधना और सुरत-शब्द-योग द्वारा सर्वेश्वर की भक्ति करके अंधकार, प्रकाशऔर शब्द के प्राकृतिक तीनों परदों से पार जाना और सर्वेश्वर से एकता का ज्ञान प्राप्त करके मोक्ष पा लेने कामनुष्य मात्र अधिकारी है।

झूठ बोलना, नशा खाना, व्यभिचार करना, हिंसा करना अर्थात् जीवों को दुःख देना वा मत्स्य-मांस को खाद्यपदार्थ समझना और चोरी करना; इन पाँचो महापापों से मनुष्यों को अलग रहना चाहिए।

एक सर्वेश्वर पर ही अचल विश्वास, पूर्ण भरोसा तथा अपने अंतर में ही उनकी प्राप्ति का दृढ़ निश्चय रखना,सद्गुरु की निष्कपट सेवा, सत्संग और दृढ़ ध्यानाभ्यास; इन पाँचो को मोक्ष का कारण समझना चाहिए।

-:सन्तमत की परिभाषा:-

शांति प्राप्त करने का प्रेरणा मनुष्यों के हृदय में स्वाभाविक ही है। प्राचीन काल में ऋषियों ने इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर इसकी पूरी खोज की और इसकी प्राप्ति के विचारों को उपनिषदों में वर्णन किया। इन्हीं विचारों से मिलते हुए विचारों को कबीर साहब और गुरुनानक साहब आदि संतों ने भी भारती और पंजाबी आदि भाषाओं में सर्वसाधारण के उपकारार्थ वर्णन किया, इन विचारों को ही संतमत कहते हैं। परंतु संतमत की मूल भित्ति तो उपनिषद् के वाक्यों को ही मानने पड़ते हैं। क्योंकि जिस ऊँचे ज्ञान का तथा उस ज्ञान के पद तक पहुँचाने के जिस विशेष साधन- नादानुसंधान अर्थात् सुरत-शब्द-योग का गौरव संतमत को है, वे तो अति प्राचीन काल की इसी भित्ति पर अंकित होकर जगमगा रहे हैं। भिन्न-भिन्न काल तथा देशों में संतों के प्रकट होने के कारण तथा इनके भिन्न-भिन्न नामों पर इनके अनुयायियों द्वारा संतमत के भिन्न-भिन्न नामकरण होने के कारण संतों के मत में पृथक्त्व ज्ञात होता है; परन्तु यदि मोटी और बाहरी बातों को तथा पन्थाई भावों को हटाकर विचारा जाए और संतों के मूल एवं सार विचारों को ग्रहण किया जाए, तो यही सिद्ध होगा कि सब संतों का एक ही मत है।

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